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कविता

महानगर में लड़की

ओम धीरज


आज महानगर में भी जब
लड़की चलती है,
लगता कातर हिरनी जंगल
बीच गुजरती है।

देह तीक्ष्ण बाणों से अक्सर
बिंध-बिंध जाती है
लोलुप आतुर हिंसक तक से
घिर-घिर जाती है,
मौन झुकी आँखों को अपनी
ढाल बना करके
बेर बबूलों बीच अमोले-सा
वह पलती है।

नई पौध हो चाहे कोई
बूढ़ा बरगद हो
बार-बार झुक जाए, देखे
कोई करवट हो
गंध-छुअन से आगे बढ़कर
चाह निगलने की,
इन्हीं बीच फिर भी वह जीवन
ढाला करती है।

अपनों की है लाज अस्मिता
और अमानत है
दूजों बीच अमानत में ही
छिपी खयानत है
अमृत-विष के बीच दूध की
प्यारी यह नदिया
धरती-धर्म सदृश धात्री बन
बहती रहती है।


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